दिल्ली की प्रशासनिक मशीनरी बड़े बदलाव के मुहाने पर खड़ी है। प्रस्ताव है कि राजधानी में दो नए जिले बनाए जाएं और कुल जिलों की संख्या 11 से बढ़कर 13 हो जाए। सरकार का तर्क साफ है—कम क्षेत्र, कम भीड़, तेज सेवा। यह कदम सिर्फ सीमाएं खींचने तक सीमित नहीं, बल्कि जिले-स्तर पर फैसले लेने की क्षमता बढ़ाने और लोगों तक सेवाएं सरल करने की पूरी कवायद है। यहां जिस शब्द पर नजर टिकनी चाहिए, वह है: दिल्ली नए जिले—क्योंकि इसी से शासन की रूपरेखा बदलेगी।
राजधानी की आबादी करीब 2 करोड़ के आसपास है और रोजमर्रा की सरकारी सेवाओं का बोझ सीधे जिलों पर आता है—जमीन-सम्पत्ति रजिस्ट्रेशन से लेकर जन्म-मृत्यु प्रमाणपत्र, आय-डोमिसाइल और ट्रेड लाइसेंस जैसी सेवाएं। मौजूदा जिलों में फाइलों का दबाव और भौगोलिक फैलाव, दोनों ही गले की फांस हैं। प्रस्तावित पुनर्गठन का मकसद है कि हर जिले का दायरा घटे, अधिकार बढ़ें और लेयर कम हों, ताकि शिकायतों का निपटारा जल्दी हो।
योजना का दूसरा बड़ा हिस्सा जिलाधिकारियों (डीएम) की शक्तियों को मजबूत करना है। दिल्ली में अभी कई मामलों में डीएम की शक्तियां दूसरी राज्यों के मुकाबले सीमित रहीं हैं। नए ढांचे में राजस्व, लाइसेंसिंग और निगरानी संबंधी अधिकारों को स्पष्ट कर डीएम को प्रशासन का सिंगल प्वाइंट जिम्मेदार बनाया जाएगा। इसका सीधा असर विभागों के बीच समन्वय और जवाबदेही पर पड़ेगा।
सीमाओं के लिहाज से सबसे बड़े बदलाव पूर्वी दिल्ली के प्लेट पर दिखाई दे सकते हैं। सूत्र बताते हैं कि एक एमसीडी जोन को पूरा का पूरा नया जिला बनाने का विचार टेबल पर है। इसी के साथ शाहदरा जिले को पूरी तरह खत्म कर उसकी सीमा-पुनर्संरचना करने की संभावना पर गंभीर चर्चा हो रही है। साउथ-ईस्ट दिल्ली और आउटर दिल्ली की सीमाएं भी बदली जा सकती हैं, ताकि राजस्व जिले और एमसीडी जोन आपस में मेल खाएं और “यह किस दफ्तर का काम है?” जैसा सामान्य भ्रम खत्म हो।
यह कोई अचानक लिया गया फैसला नहीं दिखता। उच्च स्तर पर बैठकें हो रही हैं और “ईज ऑफ लिविंग” व “ईज ऑफ डूइंग बिजनेस” के लक्ष्य के साथ मौजूदा बाधाओं—टूटी-फूटी डेटाबेस, अलग-अलग लाइसेंसिंग अथॉरिटीज, एकीकृत पोर्टल की कमी और राजस्व नुकसान—की सूची सामने रखी गई है। मंशा है कि जिलों में एक ही खिड़की पर अधिकतर सेवाएं मिलें और विभाग नागरिक के पास आए, न कि नागरिक अलग-अलग इमारतों के चक्कर काटे।
सबसे दृश्यमान बदलाव होगा मिनी सचिवालय। हर जिले में एक मिनी सचिवालय बनेगा जहां राजस्व, नगर सेवा, स्वास्थ्य, शिक्षा, परिवहन, सामाजिक कल्याण, महिला एवं बाल विकास जैसे विभागों के फील्ड अफसर एक ही परिसर में बैठेंगे। यह मॉडल हर रोज की जरूरतों—प्रमाणपत्र, लाइसेंस, म्यूटेशन, ट्रेड अनुमति, बिल्डिंग से जुड़े अनुमोदन—को एक जगह निपटाने में मदद करेगा।
इसके साथ जिला विकास समितियां (DDC) गठित की जाएंगी, जिनमें स्थानीय जनप्रतिनिधि और वरिष्ठ अफसर शामिल होंगे। विचार यह है कि इलाके की प्राथमिकताएं—सड़क, जलनिकासी, स्कूल-हेल्थ सुविधाएं, बाजार और पार्किंग—इसी स्तर पर तय हों और विभाग उसी के अनुसार काम जोड़ें। इससे बजट का बिखराव कम होगा और परियोजनाओं का रियल-टाइम मॉनिटरिंग हो सकेगा।
लाइसेंसिंग ढांचे में भी बड़ा बदलाव प्रस्तावित है। अभी कई गतिविधियों के लिए अलग-अलग प्राधिकरणों तक जाना पड़ता है—एमसीडी का ट्रेड लाइसेंस, स्वास्थ्य संबंधी अनुमति, दुकाने और संस्थान पंजीकरण, फायर एनओसी, और कई बार स्थानीय पुलिस से अलग अनुमति। योजना है कि इन प्रक्रियाओं को एकीकृत कर एक पोर्टल और एक जिला-स्तरीय जवाबदेह इकाई के तहत लाया जाए। इससे न सिर्फ समय बचेगा बल्कि राजस्व लीकेज पर भी रोक लगेगी।
सीमा-निर्धारण से रोजमर्रा की सेवाओं पर असर कैसा होगा? उदाहरण के तौर पर, अगर शाहदरा जिला खत्म होता है तो उसके इलाकों की फाइलें पड़ोसी जिलों—जैसे उत्तर-पूर्व या पूर्वी दिल्ली—में ट्रांसफर होंगी। नागरिकों के लिए इसका मतलब यह होगा कि उन्हें नए जिले के ई-डिस्ट्रिक्ट पोर्टल और दफ्तर की जानकारी लेनी होगी। सरकार कह रही है कि ट्रांजिशन के दौरान डिजिटल रिकॉर्ड माइग्रेशन और हेल्पडेस्क के जरिए भ्रम कम किया जाएगा।
पुलिस, एमसीडी और अन्य एजेंसियों के बीच समन्वय भी बड़ी कड़ी है। दिल्ली पुलिस की सीमाएं केंद्र के अधीन हैं और कई बार राजस्व जिलों से मेल नहीं खातीं। इस असमानता से शिकायतों पर कार्रवाई में देरी या फाइल-फॉरवर्डिंग बढ़ जाती है। प्रस्तावित ढांचा एमसीडी जोनों के साथ तो मेल बैठाने की कोशिश करेगा, पर पुलिस सीमाओं के साथ 100% सामंजस्य संभव न भी हो—फिर भी विभागों के बीच तय प्रोटोकॉल और संयुक्त कंट्रोल रूम जैसे उपाय देरी घटा सकते हैं।
प्रशासनिक दृष्टि से नए जिले बनाना सिर्फ बोर्ड बदलना नहीं है। इसमें नए डीएम, एडीएम, एसडीएम और तहसील स्तर पर पद सृजन, स्टाफ की तैनाती, कार्यालय स्थल, आईटी इंफ्रास्ट्रक्चर और बजट प्रबंधन शामिल है। विभागों के बीच डेटा साझा करने के मानक तय करने होंगे—जैसे भूमि रिकॉर्ड, प्रॉपर्टी टैक्स, बिल्डिंग परमिट, जनगणना कोड और सामाजिक पेंशन की सूचियां—ताकि पुरानी और नई सीमाओं के बीच डेटा का टकराव न हो।
लोगों के नजरिए से सबसे बड़ा फायदा दूरी और समय की बचत है। अभी कई इलाकों से जिला मुख्यालय तक पहुंचना मुश्किल होता है, खासकर पूर्वी और बाहरी हिस्सों से। छोटे जिलों का मतलब कम कतारें, तेज अपॉइंटमेंट, और शिकायतों के फॉलो-अप में कम दौड़-भाग। इसके साथ ही रजिस्ट्री, नामांतरण, आय/जाति/डोमिसाइल प्रमाणपत्र जैसी सेवाओं की पेंडेंसी घटने की उम्मीद है।
फिर भी कुछ व्यावहारिक चुनौतियां रहेंगी। सीमाएं बदलने पर पते, खसरा-खतौनी, वार्ड-कोड और विभागीय रिकॉर्ड अपडेट करने होंगे। शुरू के महीनों में नागरिकों को यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि उनका इलाका किस जिले में चला गया है और किस कार्यालय में आवेदन करना है। सरकार अगर पहले से मैप, नोटिफिकेशन, एसएमएस अलर्ट और कैंप लगाकर सूचना दे, तो यह दिक्कत काफी हद तक टल सकती है।
यह भी ध्यान रखना होगा कि “दो-स्तरीय शासन” का जो खाका तैयार हो रहा है, उसमें जिला स्तर पर निर्णय लेने की शक्ति बढ़ाने के साथ शहर-स्तरीय नीतियों की सुसंगतता बनी रहे। पानी, प्रदूषण, सार्वजनिक परिवहन और बड़े बुनियादी प्रोजेक्ट—ये सब महानगरीय पैमाने पर ही सुलझते हैं। इसलिए योजना यह है कि जिला स्तर पर अमल तेज हो और शहर स्तर पर नीति एकजुट रहे।
कब तक? आधिकारिक टाइमलाइन अभी सार्वजनिक नहीं है, लेकिन संकेत यही हैं कि प्रस्ताव पर उच्च स्तर पर लगातार समीक्षा चल रही है। अगले चरणों में ड्राफ्ट सीमा-रेखा, आपत्तियां-सुझाव, कैबिनेट/प्राधिकृत मंजूरियां और आधिकारिक अधिसूचना शामिल होंगी। नागरिकों के लिए देखने वाली बातें होंगी—नए जिलों के नाम और दायरा, शाहदरा की स्थिति, साउथ-ईस्ट और आउटर दिल्ली की नई सीमाएं, और मिनी सचिवालय कहां-कहां बनेंगे।
करीब एक दशक पहले हुए पुनर्गठन के बाद यह सबसे बड़ा बदलाव माना जा रहा है। तेजी से बढ़ते शहरी इलाकों, नई कॉलोनियों और बढ़ते कारोबारी हब ने मौजूदा ढांचे पर दबाव बढ़ा दिया है। अगर यह योजना अपने लक्ष्य तक पहुंचती है, तो दिल्ली के जिलों की नई तस्वीर न सिर्फ नक्शे पर दिखेगी, बल्कि थाने-दफ्तर और खिड़की-काउंटर के अनुभव में भी महसूस होगी।